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सफलता प्राप्त करने के बाद का संघर्ष

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  आज आपको मेरे ब्लॉग के इस शीर्षक को पढ़ने के बाद कुछ अजीब सा लग रहा होगा। पक्की बात है कि आप सोच रहे होंगे कि भला सफलता प्राप्त करने के बाद कौन सा संघर्ष करना पड़ता है? सफलता प्राप्त करने के बाद तो बस ऐश मौज मस्ती और आराम होता है।  लेकिन अधिकांश लोगों के साथ ऐसा नही होता है। खासकर उनके साथ तो बिल्कुल भी नहीं, जो अपनी सफलता को बरकरार रखना चाहते हैं। ये बात हम सभी जानते हैं कि सफलता समय के साथ घटती- बढ़ती रहने वाली चीज है। फिर भी जो लोग चाहते हैं कि उनका नाम , उनकी पहचान अथवा उनकी कामयाबी समय के अनुरूप बनी रहे, तो इसके लिए उनको कठिन संघर्ष करना पड़ता है। क्योंकि वो सिर्फ़ आसपास के लोगों की नजर में ही नहीं बल्कि दूर दराज के लोगों के बीच भी अपनी खास जगह बना लेते हैं। अब उनके इन्हीं शुभचिंतकों के बीच कुछ ईर्ष्यालु शत्रु भी दोस्त, परिचित या फिर रिश्तेदार के रूप छुपे होते हैं, जो इस बात की ताक में लगे रहते हैं कि कब उनसे कोई भूल हो और वो उनकी खिंचाई करें। ऐसे लोग आपके जीवन में आपको नीचा दिखाने का कोई भी मौका नही चुकते हैं।  दूसरी तरफ देखा जाए तो अगर आप व्यवसायीं हैं , तो आपसे आपके कस्टमर उम्

रंग भी हमारे व्यक्तित्व व मूड को प्रभावित करते हैं

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बहुत अच्छा से ना सही,  लेकिन कुछ हद तो आपको भी पता होगा कि रंग भी हमारे व्यक्तित्व व मूड को प्रभावित करते हैं.कुछ ख़ास प्रोफेशन में तो खास रंग के ही कपड़े (ड्रेस कोड) पहनने होते हैं. उदाहरण के तौर पर डॉक्टर सफेद कोट अथवा एप्रोन पहनते हैं तो वकील काला कोट ही पहनते हैं. पुलिस खाकी रंग पहनते हैं. कई विशेषज्ञों ने अपने शोध के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया है कि अलग-अलग रंगों का प्रभाव मानव के दिमाग पर अलग-अलग पड़ता है. जैसा प्रभाव इन रंगों का हमारे दिमाग पर पड़ता है ,वैसा ही प्रभाव हमारे मूड पर पड़ता है.यानि की रंग भी हमारे मूड को प्रभावित करते हैं। हमारे दिल और दिमाग में उठने वाले सकारात्मक और नकारात्मक भाव के लिए काफी हद तक ये रंग भी जिम्मेदार होते हैं. मन के चलिए की हमारे व्यक्तित्व पर इन रंगों का गहरा प्रभाव रहता है. आइये इन रंगों के बारे में विस्तार से जाने कि कौन -सा रंग हमारे व्यक्तित्व और मूड  को किस प्रकार प्रभावित करता है- लाल रंग हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाने और मूड को खुशनुमा बनाये रखने में अहम भूमिका निभाता है. इसे ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन के साइकोलॉजिस्ट डॉ. ब्रिवर ने लगभग एक हजार महिलाओ

पढ़ाई करने की कोई उम्र नहीं होती

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हमारे देश में आज भी कई ऐसी महिलाएं हैं, जिन्हें युवावस्था में किसी कारणवश अपनी पढाई बीच में छोड़कर अर्थोपार्जन में लग जाना पड़ा या फिर उनकी शादी हो गयी. अब जबकि वो उम्र के मध्य पड़ाव (३५ -४० में ) पर पहुँच गई हैं और आर्थिक स्थिति भी बेहतर हो चुकी है तो उन्हें युवावस्था में छूटी हुई पढाई को पूरा करने की इच्छा होती है किन्तु संकोच उनका रास्ता रोक देती है. उन्हें मन की बात व्यक्त करने में कभी परिवार वालों से झेंप होती है तो कभी समाज के लोगों से शरम आती है.आज मेरा ये लेख उन्ही महिलाओं के लिए है. दरअसल सच तो यह है कि पढ़ने-लिखने की कोई उम्र सीमा नही होती है. आप किसी भी उम्र में अपनी शिक्षा पूरी कर सकती हैं. इसमें संकोच करने वाली कोई बात ही नहीं है. मेरे पड़ोस में ज्योति जी रहती हैं. इंटर करने के बाद उनकी शादी हो गयी थी. कई बार उन्होंने सोचा कि किसी प्रकार ग्रेजुएशन पूरा कर लूं. पर घर-गृहस्थी संभालने के चक्कर में कभी समय ही नहीं मिला कि पढाई कर पायें. अभी उनकी उम्र 51 वर्ष है. हाल ही में जब उनकी नई नवेली बहु को उनके मन की बात पता चली तो उसने उन्हें पहले तो मोटिवेट किया और फिर पति से बात करके अपन

फर्स्ट इम्प्रेशन' का महत्व कितना?

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शोभा शादी करके जब ससुराल आई तो उसे पहले दिन ही अपनी सास का वो रूप देखने को मिला, जिसे वो चाहकर भी नहीं भूल पाती है. हुआ यूं कि जिस दिन शोभा ससुराल आई, उस दिन उसकी सास अपनी देवरानी से किसी बात पर बुरी तरह झगड़ पड़ी. बात छोटी-सी ही थी, किंतु शोभा की सास अपने क्रोद्ध  पर क़ाबू न रख सकीं. नतीजा यह हुआ कि पहले दिन से ही शोभा के मन में अपनी सास के लिए कड़वाहट भर गई तथा वह अपनी सास से डरने भी लगी. वैसे उसकी सास का उसके साथ बहुत अच्छा व्यवहार रहता है. फिर भी, ससुराल में क़दम रखते ही पहले दिन वो सास का जो स्वभाव देख चुकी है, उसका गहरा प्रभाव उस पर पड़ा है. यही कारण है किं शोभा आज तक अपनी सास से खुल नहीं पाई है. ऐसे ही एक स्कूल में कल्पना जी को टीचर की नयी-नयी नौकरी मिली. पहले दिन जब वो बच्चों को पढ़ाने कक्षा में गई तो पहले दिन ही बच्चों को इतना डांट-डपट कर पढ़ाया कि बच्चे उनसे डर गए. नतीजा यह है कि बच्चों को अगर कोई सवाल ठीक से समझ में नहीं आता है तो भी वे उनसे यानि कल्पना जी से डर के मारे नहीं पूछते हैं. कक्षा से वे जैसे ही बच्चों को पढ़ाकर निकलती हैं, बच्चे राहत की सांस लेते हैं. देखा जाए तो

क्या आपका बच्चा भी लिखने से जी चुराता है ?

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आज मैं इस लेख में बच्चों की पढ़ाई से सम्बंधित एक बड़ी समस्या का जिक्र कर रही हूँ. हो सकता है कि आपमें से कई माता -पिता का ध्यान अपने बच्चे की इस समस्या की ओर नही हो गया हो, किन्तु 24 साल से स्कूली शिक्षा से जुड़े होने के कारण मेरा अपना यह अनुभव रहा है कि आज के बच्चे लिखने से भागते हैं. इसके लिए अगर कोरोना काल में लगे लॉक डाउन को इसका कारण माना जाये तो मैं उससे भी पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ. दरअसल आधुनिक युग के बच्चे मोबाइल, लैपटॉप आदि से इतना ज्यादा जुड़ गये हैं कि उन्हें इन आधुनिक उपकरणों पर टाइप करना आसान लगता है और कॉपी पर लिखना कठिन काम लगता है.जबकि बच्चों के लिए लिखना कितना जरुरी है, ये कोई बताने वाली बात ही नही है. बार -बार किसी पाठ को पढ़ने और लिखने से ही बच्चों में पढाई के प्रति लगन जागती है और वो पढाई में मजबूत बनता है. लिखने की कला अथवा क्रिया से बच्चों को जोड़ने के लिए सबसे ज्यादा ध्यान स्कूल में टीचर को और घर पर माता -पिता को देना चाहिए. अगर आप एक ऐसे माता -पिता अथवा अभिभावक हैं जो ये मानते है कि किसी बड़े स्कूल में दाखिला करवा देने से या घर पर महंगे ट्यूटर रख देने से उनकी जिम्मेदा

लॉक डाउन के बाद बच्चों की पढ़ाई की स्थिति

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कोरोना महामारी के कारण देश में लगे लम्बे समय के लॉक डाउन लगभग सभी बच्चों की पढाई पर बुरा असर पड़ा है. ऑनलाइन पढाई से बच्चे पढाई से जरुर जुड़े रहे किन्तु इसका कोई ख़ास लाभ उनके शैक्षणिक विकास पर नही पड़ा. ऑनलाइन पढाई के दौरान मोबाइल गेम ने भी बच्चों को अपने गिरफ्त में ले लिया. जिसके कारण माता-पिता की भी कठिनाइयाँ बढ़ी.अब जबकि सभी राज्यों में स्कूल लगभग खुल ही चुका है तो देखा जा रहा है कि बाहर के मौसम को सहन करने के हिसाब से अधिकांश बच्चों की इम्युनिटी पावर पहले की अपेक्षा घट चुकी है और साथ ही एकाग्र होकर याद करने और लिखने की क्षमता भी काफी हद तक पहले की तरह नहीं है. ऐसे में जरुरी है कि अभिभावक और टीचर्स कुछ ख़ास बातों का ध्यान रखते हुए सभी आयु वर्ग के बच्चों को पुन: स्वास्थ्य  और पढाई के प्रति लगाव पैदा करें.  (1)अभिभावक की आर्थिक स्थिति इस लॉक डाउन में इतनी खराब हो गयी है कि जो महिलाएं पहले घर पर रहकर बच्चों को समय देती थीं, वो भी अब छोटी -मोटी नौकरी अथवा रोजगार से जुड़कर घर की आर्थिक स्थिति सुधारने में लग गयी हैं, जो कि आवश्यक भी है. फिर भी इस वक्त बहुत ही जरुरी है कि माता -पिता अपने आर्थिक

कहीं दूसरों के सामने आप भी अपने बच्चे के टेलेंट की नुमाइश तो नही कर रहे हैं ?

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अकसर कई घरों में  बचपन से लेकर आज तक मैं एक अजीब सी बात देखती आ रही हूं। हो सकता है मेरी तरह आपने भी देखा हो और इसे गलत भी समझा हो।  दरअसल ये बात है उन मासूम बच्चों की जिनके अंदर स्वाभाविक रूप से कोई खास बात होती है। मान लीजिए उसे अपनी आयु अथवा क्लास से ज्यादा कोर्स से बाहर की भी चीजें पढ़ने- लिखने आती हो, या फिर उसे गाना, डांस, कोई ख़ास गेम आम बच्चों से अधिक आता हो.  ऐसे में अकसर माता -पिता के मन में आता है कि समाज के चार लोग उसके बच्चे की उस खूबी की तारीफ़ करें. अब ऐसे में घर पर कोई मेहमान, परिचित ,रिश्तेदार अथवा अड़ोसी -पडोसी आ गये तो बात -बात में अपने बच्चे की कुछ तारीफ करेंगे. बच्चे को झट से कुछ ख़ास सुनाने को या पढने को कहेंगे. डांस करने को या गाने को कहेंगे. इतफाक से अगर बच्चे ने माता -पिता के मन के अनुरूप सुना दिया या दिखा दिया तब तो कोई बात नहीं. किन्तु अगर उनके मन के अनुरूप प्रदर्शन नही कर पायें तो खुद को शर्मिंदा होते हुए पाकर सीधा -सा आरोप मासूम बच्चे पर लगा देते हैं. मेहमान के जाने के बाद बच्चे को कसकर डांटना -पीटना अथवा कोसना भी शुरू कर देते हैं. पहले मुझे ऐसा लगता था की सोशल